सफ़र के आगाज में मैं था
जैसे उद्गम से निकलती
तेज बहाव वाली नदी की कल कल जलधारा
बड़े-बड़े पत्थरों को तोडती
कंकडो में बदलती, रेत में परिवर्तित करती
बनाती खुद के के लिए रास्ता.
थे जवानी के दिन
तभी तो कुछ कर दिखाने का दंभ भरते
जोश में रहते, साहस से लबरेज !!
सफ़र के मध्यान में हूँ
कभी चपल, कभी शांत, कभी खिलखिलता
नदी का मैदानी सफ़र हो जैसे
तेज पर संतुलित सा जलधारा
किसानों का पोषक, नाविकों का खेवैया
उम्मीद व ख्वाहिशों का बोलबाला
जो बेशक पूरा न हो, आगे बढ़ते जाता
जैसे कभी बाढ़ लाती तो
कभी खुशियों की संवाहक नदी !!
कभी चपल, कभी शांत, कभी खिलखिलता
नदी का मैदानी सफ़र हो जैसे
तेज पर संतुलित सा जलधारा
किसानों का पोषक, नाविकों का खेवैया
उम्मीद व ख्वाहिशों का बोलबाला
जो बेशक पूरा न हो, आगे बढ़ते जाता
जैसे कभी बाढ़ लाती तो
कभी खुशियों की संवाहक नदी !!
होगा एक दिन अंतिम सफ़र
जब शिथिल होगा शरीर
थम जायेगा या फिर मंथर होगा बहाव
थमते रुकते धीरे-धीरे
जैसे नदी अपने अंतिम क्षण में
डेल्टा पर जमा करती हो अवशेष
फिर पा जायेगी परिणति!!
ख़त्म हो जायेगा शरीर
जैसे मिल गये
क्षितिज जल पावक गगन व समीर !!
जब शिथिल होगा शरीर
थम जायेगा या फिर मंथर होगा बहाव
थमते रुकते धीरे-धीरे
जैसे नदी अपने अंतिम क्षण में
डेल्टा पर जमा करती हो अवशेष
फिर पा जायेगी परिणति!!
ख़त्म हो जायेगा शरीर
जैसे मिल गये
क्षितिज जल पावक गगन व समीर !!
6 comments:
bahut sundar rachna ...jindgi ka safar aisa hi to hota hai ...
बेमिसाल रचना !
बहुत ही सुंदर कविता.
नदी और इन्सान दोनों की गति इक समान चलती रहती है । बहुत सुंदर ।
sundar,gatisheel rachna..nadi ke prawah ki tarah.
बहुत सुंदर
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