जिंदगी की राहें

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Wednesday, October 27, 2010

महीने की पहली तारिख


एक आम नौकरी पेशा

व्यक्ति के आँखों की चमक

है लहराती

जब आ जाती

महीने की पहली तारिख

होता है

हाथो में पूरा वेतन

परन्तु फिर भी

होती है

एक चुनौती

क्योंकि बीत चुके

फाके के दिन

और

अनदेखे भविष्य का सामना

हर महीने

का हर पहला दिन

दिखता है एक साथ

रहती है उम्मीद

बदलेगा दिन

बदलेगा समय

दोपहर की धुप हो पायेगी नरम

ठंडी गुनगुनाती हो पायेगी शाम

सुबह का सूरज

निकलेगा एक अलग अहसास के साथ

पर,

पता नहीं क्यूं

हर महीने

हर उस दिन

हर बार

कुछ नहीं बदलता

नहीं बदलती है

मुश्किलें

नहीं बदलती है

कमियां

बदलती है

तो जरूरतें

बदलती है

तो फरमाइश

बदलती है

तो एक और

नए महीने की

पहली तारिख

एक और तारिख.............!



63 comments:

Neelam said...

सुबह का सूरज

निकलेगा एक अलग अहसास के साथ

पर,

पता नहीं क्यूं

हर महीने

हर उस दिन

हर बार

कुछ नहीं बदलता

नहीं बदलती है

मुश्किलें...
ek am admi ki vyatha ko aap jitne sache tareeke se byan karte hain uska jawaab naahi..bahut badhiya.
aur uss par aapke chitra kavita ke charitra ko aur uncha kar dete hain.badhai sweekaar karen.

संजय भास्‍कर said...

गद्य को पूर्णता देती कविता भी सोचने को विवश करती है.
इस शानदार रचना पर बधाई तस्वीर के चयन में आपकी पसंद की दाद देता हूँ |

...मैं भी सोच रहा हूं क्‍या कहूं।

Satish Saxena said...

आज से चमक आनी शुरू हुई है, मगर अगले महीने त्यौहार होने से यह चमक कुछ दिन ही चलेगी !

Anonymous said...

समझ में नहीं आ रहा क्या कहूं..अभी उस दौर से गुजरा नहीं हूँ...लेकिन हाँ पहली तारीख का इंतज़ार तो मुझे भी होता है, घर से पैसे जो आते हैं एकाउंट में....

मेरी नयी कविता उदास हैं हम...

रश्मि प्रभा... said...

ise kahte hain zindagi ko pal pal mahsoos kerna....

ZEAL said...

जरूरतें

बदलती है

तो फरमाइश

बदलती है

तो एक और

नए महीने की

पहली तारिख

एक और तारिख............

-----

Lovely poetry.

.

Anju (Anu) Chaudhary said...

हर बार

कुछ नहीं बदलता

नहीं बदलती है

मुश्किलें

नहीं बदलती है

कमियां

बदलती है

तो जरूरतें

बदलती है

तो फरमाइश

mukesh bhai....deri se aane ke liye maffi chahti hun....ghar ke kamo mei vyasst thi.......aapne jindagi ko bahut kareeb se dekha hai ye is kavita ko padhne ke bad pata chal jata hai........bahut sach likha hai aapne in lines mei

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

mukesh ji aaj ki zindagi se kashmkash karte log ki bhavnayen aapne is rachna me undhel diye , bahut sunder prstuti .........bdhai

तिलक राज कपूर said...

बहुत सही कहा, हर माह कैलेंडर का पन्‍ना बदल जाता है, और हर वर्ष कैलेंडर। जीवन की गतिशीलता भूल जायें तो कुछ बदला हुआ नहीं लगता अन्‍यथा सब कुछ निरंतर बदल रहा है ओर हम उसके मूक साक्षी हैं।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

neelam jee........kya kahun, koshish matra hai........waise pahle pahal comment karne ke liye sukriya..:)

shikha varshney said...

अरे पर अब तो क्रेडिट कार्ड है न :)
बहुत अच्छी कविता है.

अरुण चन्द्र रॉय said...

सचमुच पहली तारीख का इन्तजार महीने भर रहता है.. वेतन के इन्तजार के मनोवैज्ञानिक पहलु को आपने अच्छा समझा है... "आज पहली तारीख है " विज्ञापन से प्रेरित लग रही है... सुंदर कविता...

kshama said...

तो एक और

नए महीने की

पहली तारिख

एक और तारिख.............!
Ye bhee ek taar par kee kasrat hotee hai....lekin khushnuma badlaav bhee ayega ye kamna kartee hun!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

न महीने की पहली तारीख को कुछ बदलता है और न ही साल के पहले दिन में ...अच्छी अभिव्यक्ति

Udan Tashtari said...

बस, यही तो जीवन चर्या है मित्र...बहुत तरीके से उकेरा है.

anilanjana said...

आम आदमी और उसकी पहली तारिख...और फिर महीना खत्म होते न होते...वो हवा पे वार करता है..क्या पता क्या शिकार करता है...और फिर भी न जाने कैसे उम्मीद के डोर पकडे फिर से पहली तारिख तक फिर से पहुँच जाताहै...
सुबह का सूरज
निकलेगा एक अलग अहसास के साथ
hats off to AAM AADMI...n thnx to senstivity of mukesh...god bless you

Rajiv said...
This comment has been removed by the author.
Rajiv said...

मुकेश जी .
जीवन-जाल का ऐसा जीवंत वर्णन कभी-कभी देखने को मिलता है जिसकी मृग-मारीचिका में इन्सान फंसकर रह जाता है.आपकी रचना ने मुझे
"Waiting For Godot" याद दिला दी है.सुंदर एवं सामयिक बिम्ब के लिए बधाई.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Sanjay jee, dhanywaad...:)
haan satish sir dekhiye na kal parso tak salary milegi aur deewali tak khatm............fir wahi rona..!!

निर्मला कपिला said...

अम आदमी की ज़िन्दगी मे पगार का क्या महत्व है सुन्दर शब्दों मे चित्र उकेरा है। शुभकामनायें।

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब मुकेश जी ... सही कहा है ... सब कुछ वैसे ही चलता है ... तारीखें आती हैं जाती हैं .... बल्कि पहली तारीख तो और भी सोच में डाल देती है .....

डॉ. जेन्नी शबनम said...

aam aadmi ki pahli taarikh - ek taraf haath mein tankhwaah to dimaag mein pure mahine ke kharche aur uske baad bhi zaruraton kee fehrisht jo puri na ho paayegi aur fir mashakkat, yahi sach hai. bahut achha likha hai, badhai sweekaaren mukesh ji.

महेन्‍द्र वर्मा said...

नहीं बदलती हैं
मुश्किलें
नहीं बदलती हैं
कमियां

पहली तारीख के दर्शन को आपने अपनी कविता में सुंदरता से संजोया है।

Anonymous said...

नौकरी पेशे वाले आम इंसान का खाका - अच्छी रचना

परमेन्द्र सिंह said...

बढ़िया कविता। आम आदमी के दर्द को व्यक्त करती।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

प्रेमचंद ने नमक का दरोगा में कहा था कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद होता है, जो घटते घटते एक दिन लुप्त हो जाता है...हर नौकरीपेशा की यही कहानी है!

rashmi ravija said...

ओह्ह!!! घर घर की कहानी...और हर नौकरीपेशा व्यक्ति का डर उतर आया है..हर शब्द में
बहुत ही यथार्थपरक कविता

Unknown said...

mere liye kuch bacha hi nahi likhne ko..............kya kahun?

राजेश उत्‍साही said...

तारीखें आती और जाती रहती हैं।

डॉ० डंडा लखनवी said...

वेतन के माध्यम से आपने अर्थ की महत्ता को बेहतर ढ़ंग से दर्शाया है।
नौकरपेशा व्यक्ति का सटीक चित्रण किया है, आपकी रचना में।
+++++++++++++++++++++
एक दोह-
"अर्थ बिना दोनों करें, मर्दों पर आघात।
बिजली झटके मारती बीवी मारे लात॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

अच्छी रचना... जिंदगी का एक सच उजागर करती हुई.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sekhar bhai, ummid karta hoon, aapko aisa kuchh na sochna pare..:)


Rashmi di, Zeal thanx......:)

Anju jee, dhanywad, meri wastvikta ko padh pane ke liye...:)

Dr Xitija Singh said...

ये ही तो ज़िन्दगी है एक आम आदमी की ...

बहुत अच्छी रचना ...

Apanatva said...

kuch nahee badaltaa......jeevan kee hakeekat ke kareeb le jane walee rachana .
bahut acchee abhivykti .

मेरे भाव said...

bahut sundar kavita... zindgee ke ek pehlu ko ujagar kartee...

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Rajni jee, apni koshish jaari hai......vartmaan ko parosne kee.....:)

haan Tilak sir!! waise dhanywad!!

रचना दीक्षित said...

अच्छे भाव पिरोये. आने ही वाली है हमारी आपकी सबकी चहेती पहली तारीख.

sangeeta said...

Acchhi kavita !!

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Sikha, kaash credit card ka payment koi kar deta.........:). Thanx!!

Arun jee, bas jo samajh lo, par kahin se prerit to hai hi...:)

Kshama, Sangeeta di, dhanyawaad..

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

good critic

Ashok Kumar pandey said...

अच्छा प्रयास है भाई…ख़ूब लिखें…शुभकामनायें

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sameer bhaiya............thanx!

anjana di!! bas aise hi to aam aadmi jeeta hai...:)........thanx...

इस्मत ज़ैदी said...

बहुत बढ़िया ,एक मध्यम वर्ग के नौकरी पेशा मनुष्य
की भाव्नाओं का सुंदर और सच्चा चित्रण

सुनीता शानू said...

सच कहा आपने।

VIJAY KUMAR VERMA said...

जरूरतें

बदलती है

तो फरमाइश

बदलती है

शानदार रचना पर बधाई

Anupama Tripathi said...

कितनी गहराई से एक आम आदमी की सोच लिखी है -
आशा भी है और मायूसी भी -
जी हाँ -बिलकुल सही चित्रण-
बधाई एवं शुभकामनाएं-

kavita verma said...

pahli tareekh ek sukhad ehsas beeti takleefon ko bhula pane ka aur naye sapno ko sanjone ka.....har mahina ek sa hota hai har bar ki pareshniyan ek si...par ek tareekh ka ehsas unhe bhoola kar nayee umange jagane ke liye hota hai....bahut khoob....

kavita verma said...

pahli tareekh ek sukhad ehsas beeti takleefon ko bhula pane ka aur naye sapno ko sanjone ka.....har mahina ek sa hota hai har bar ki pareshniyan ek si...par ek tareekh ka ehsas unhe bhoola kar nayee umange jagane ke liye hota hai....bahut khoob....

kavita verma said...

pahli tareekh ek sukhad ehsas beeti takleefon ko bhula pane ka aur naye sapno ko sanjone ka.....har mahina ek sa hota hai har bar ki pareshniyan ek si...par ek tareekh ka ehsas unhe bhoola kar nayee umange jagane ke liye hota hai....bahut khoob....

श्रद्धा जैन said...

bahut sajeev chitran hai .. aisa hi to hai aam aadmi

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Rajeev jee...........thanx for ur beautiful words.......:)

nirmala di, dhanaywad......!!

digambar sir!!........aapke shabd mujhe prerit karenge......:)

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख!
लेकिन जल्दी क्यूँ नहीं आती पहली तारीख!
अच्छी लगी!
आशीष
---
पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Jenny di!! ham jaiso ke liye to ye sachchai hai:)

dhanyawad mahendra sir!!

rakesh jee, parmendra jee,...........thankz!!

Bihari babu sachche kaha aapne...........:)

Urmi said...

आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!

DR.ASHOK KUMAR said...

चुन- चुनकर शब्द संजोया आपने;
महिने का हाल कर दिया ब्यान;
वेतन जो महीने को कर लेता पूरी;
कहलाता हैँ अब तो वही इंसान।
बहुत ही लाजबाव कविता है और दमदार
प्रस्तुति के लिए आभार।
-: VISIT MY BLOG :-
पढ़िये नई गजल........अश्कोँ को वो अपने छुपाती हैँ।

http://vishwaharibsr.blogspot.com

Anonymous said...

महीने की पहली तारीख पूर्णमासी का चाँद होता है प्रेमचन्द ने कहा था ! घटते घटते तो अमावस्या होना ही है ! सुंदर अभिव्यक्ति

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Haaan, Rashmi Ravija jee yahi to sach hai na..........

Rooma thanx...........

Rajesh bhaiya dhanyawad....

Dr. Lukhnavi aapka doha achchha laga.......thanx for coming here!

Vandana jee dhanyawad........prerna ke liye..:)

देवेन्द्र पाण्डेय said...

निश्चित आय वर्ग के दर्द को अभिव्यक्त करती अच्छी कविता।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Kshitiza thanx..........Sarita di, aapko bhi dhanyawad!! utsah vardhan ke liye!!

"mere bhaw", rachna jee......aapke comments prernadayee hain..:)

palash said...

पिता जी का व्यव्साय है इस लिये कभी एक तारीख का यह पता नही था । आज आपकी पोस्ट ने जिन्दगी के एक नये पहलू से रू - ब - रू करा दिया - आभार

soni garg goyal said...

वास्तव में ये एक तारीख खुशी के साथ थोड़ी परेशानी भी लाती है एक आम आदमी की जिंदगी में !

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मुकेश भाई, सच को उतार कर रख दिया। बधाई।

---------
जानिए गायब होने का सूत्र।
….ये है तस्‍लीम की 100वीं पहेली।

हरकीरत ' हीर' said...

हर उस दिन
हर बार
कुछ नहीं बदलता
नहीं बदलती है
मुश्किलें
नहीं बदलती है
कमियां
बदलती है
तो जरूरतें

मुकेश जी जीतनी मंहगाई होती जा रही है ...
नौकरी पेशों के लिए ये कमी यूँ ही मुंह बाये खड़ी रहेगी ....