जिंदगी की राहें

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Thursday, January 1, 2015

हाशिये पर हर्फ़


तकिये को मोड़ कर
उस पर रख लिया था सर
टेबल लैम्प की हलकी मद्धिम रौशनी
नजदीक पढने वाले चश्मे के साथ
गड़ाए था आँख 
“पाखी” के सम्पादकीय पर !!
हाशिये पर हर्फ़
समझा रहे थे, प्रेम भरद्वाज
उन्हें पागल समझने के लिए
हैं हम स्वतंत्र
क्योंकि वो करते हैं दिल की बात !!
तभी अधखुली खिड़की से
दिखा रुपहला चमकीला चाँद
हाँ ठण्ड भी तो थी बहुत
लगा कहीं कम्बल तो नहीं मांग रहा !
या फिर, शायद वो ही निहार रहा था
मेरी ओर,
आखिर क्यों कम करूँ खुद की अहमियत !
आखिर सोचना ही है तो
क्यों न सोचें की
चाँद ही बन जाए हमदम !! हर दम !!
फिर टिमटिमाते तारों से भरा
ये काला आकाश
और उसमे एकमात्र प्यारा सा चाँद
जैसे छींट वाला कम्बल ओढ़े
निहार रही थी “तुम”!!
उफ़ ये हाशिये के हर्फ़
तुम्हारे साथ हो जाएँ
शब्दों के हर्फ़
दिल की गहराईयों से जुड़ जाएँ
काश आभासी ही सही
हमसफ़र हो जाएँ 
--------------------
वैसे ही जुड़ते चले गये हर्फ़


5 comments:

Unknown said...

too good!!!!

Unknown said...

shabdon ki bahut hi nirali rachna chand ke liye waah!!!keep it up ..:)

Daisy jaiswal said...

बहुत-सुंदर

Daisy jaiswal said...

बहुत-सुंदर

Unknown said...

khubsurat shabdon ke sath sundar bhav....umda